क्या "गिता" के अनुसार कीसी भी 'जानवर', 'जिव', या 'पेडोपौधे' को मारना उचित है ।

अहिँसा के सात भाव हैँ

अहिंसा त्वासनजय: परपीडाविवर्जनम् ।

श्रध्दा चातिथ्यसेवा च शान्तरुपप्रदर्शनम ॥

आत्मीयता च सर्वत्र आत्मबुध्दि: परात्मसु।

" आसनजय, दुसरोके मन-वाणी-शरीरसे दु:ख न पहुँचाना, श्रध्दा, अतिथिसत्कार, शान्तभावका प्रदर्शन, सर्वत्र आत्मीयता और दुसरोमेँ भी आत्मबुध्दि ।"

यह धर्म हैँ। इस का थोडा-सा भी आचरण परम लाभदायक और इसके विपरीत आचरण महान हानिकारक हैँ -

यथा स्वल्पमधर्मं ही जनयेत तु महाभयम्। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात ॥

[बृहध्दर्मपुराण, पुर्वखण्ड 1/47]

पिछले पेज पर जो भगवान को वचनो को आपने पढा उन्हे अनसुना कर हिँसा करने वालो लोग जैसे

मच्छर, चुहे, कॉकरोच, कुत्ता, बैल, बिल्ली, या फिर घर या बाहर निकले हुये सांप को नपुंसकता दिखाते हुये मार डालना और पेँड पौँधो तथा घास को उखाडना, अथवा अन्य किसी भी जीव की हत्या करना, किसी का अपमान, ताने मारणा, बुरा भला और कठोर वचन कहना अथवा किसी के बारे मेँ मन से बुरा चाहना,

इस सबको करने वाले ऐसे लोग तो महान अपवित्र और घोर नरको मे पडते हैँ । भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार जो व्यक्ती हिँसा करता हैँ करता हैँ, वो तामसी और पापी व्यक्ती अधोगती अर्थात नरक को प्राप्त होता हैँ।

तामस लोक कौनसी गती को प्राप्त होते हैँ, ये समझाते हुये भगवान गिता के 14 वे अध्याय के 18 वे श्लोक मेँ कहते हैँ।

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥

अर्थात हे अर्जुन !सत्त्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं॥18॥

जो भगवान श्रीकृष्ण के वचनोँ का पालन नहीँ करते हुये "हिंसा" करते हैँ । वह लोग गिता पढे बिना ही भगवान श्रीकृष्ण के भक्त होने का ढिँढोरा पिटते रहते हैँ।

उन लोगो के बारे भगवान गिता के 16 वे अध्याय के 20 वे श्लोक मेँ कहते हैँ।

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि। मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌॥

अर्थात हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं ॥20॥

तथा भगवान मेँ कहना ना मानने वालो के बारे मेँ कहते हैँ

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥

अर्थात हे अर्जुन! उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा॥18-58॥

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥

अर्थात हे अर्जुन! परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥3-32॥

तथा श्रीमदभागवत् मेँ भी कहा गया हैँ,

पशुं विधिनालभ्य प्रेतभूतगणान् यजन ।


नरकानवशो जंतुर्गत्वा यात्युल्बणं तम: ॥

[श्रीमदभागवत् स्कन्ध 11, अध्याय 10, श्लोक 28]

अगर मनुष्य प्राणियोँको सताने लगे और विधी - विरद्ध पशुओँकी बलि देकर भुत और प्रेतोंकी उपासना मेँ लग जाय, तब तो वह पशुओंसे भी गया - बीता होकर अवश्य हीँ नरक मेँ जाता हैँ । उसे अन्त मेँ घोर अन्धकार स्वार्थ और परमार्थ से रहित अज्ञानमेँ ही भटकना पड़ता हैँ॥

संसार मेँ कोइ भी मनुष्य ऐसा नहीँ हैँ जो हिँसा ना करता हो उठते बैठते चलते फिरते, पैर के निचे आकर अनेक किडे मकौडे मर जाते हैँ पर इसका भगवान के सामने जाकर प्राइश्चित करना चाहिये और भगवान से क्षमा मांगनी चाहिये। परंतु जानबुझ कर 'हिंसा' नहीँ करनी चाहिये ये 'अधर्म' हैँ और 'अहिँसा' ही 'परमोधर्म' हैँ।

जानिये "धर्म" क्या हैँ ? और "अधर्म" क्या हैँ ? तथा "ज्ञान" और "अज्ञान" किसे कहते हैँ ? जानिये......यहां किल्क करके.

"मासाहांर" का सेवन करने वाले लोग घोर नरक मेँ जाते हैँ, जानिये कैसे ?.....यहां किल्क करके.



कुछ प्रश्न और उनके समाधान