जानिये "कर्तव्य कर्म" कौन से हैँ ? और "अकर्तव्य कर्म" कौन से हैँ ?

भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा 16 वे अध्याय पहले, दुसरे और तिसरे श्लोक मेँ कहेँ गये 26 गुणोँ को "कर्तव्यकर्म" कहते हैँ, यह जिस मेँ हैँ, वह मनुष्य दैवी संपदा वाला कहा जाता हैँ।

(1) {अभंय} निर्भयता - भय का सर्वथा अभाव,

(2) {सत्त्वसंशुध्दि} मन की शुध्दता - अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता,

(3) {ज्ञानयोगव्यवस्थिती} तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति - परमात्मा के स्वरूप को तत्त्व से जानने के लिए सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकी भाव से ध्यान की निरन्तर गाढ़ स्थिति का ही नाम 'ज्ञानयोगव्यवस्थिति' समझना चाहिए,

(4) {दानं} सात्त्विक दान, - दान देना ही कर्तव्य है- ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया हैँ,

(5) {दमश्च} इन्द्रियों का दमन - इन्द्रियोंको विषयोँकी ओरसे हटाकर उन्हेँ अपने वशमेँ कर लेना 'दम' हैँ,

(6) {यज्ञश्च} यज्ञ - भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण,

(7) {स्वाधाय} वेद अध्ययन - वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान्‌ के नाम और गुणों का कीर्तन,

(8) {स्तप} तप - स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन (तप वाचिक-मानसिक-शारिरीक ऐसा तिन प्रकार का होता हैँ, गिता 17-14,15,16)

(9) {आर्जवम्} आर्जवता - शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता,

(10) {अहिँसा} हिंसा न करना - मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना,

(11) {सत्यम्} यथार्थ और प्रिय अर्थात सत्य भाषण - अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम 'सत्यभाषण' हैं,

(12) {अक्रोधस्त} क्रोध का अभाव - अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना,

(13) {त्याग} कर्तृत्व अभिमान का त्याग - कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग,

(14) {शान्तिर} अन्त:करण की सात्विक प्रसन्नता - अन्तःकरण की उपरति अर्थात चित्त की चञ्चलता का अभाव,

(15) {अपैशुनम्} किसी की भी निन्दादि न करना - दुसरोके दोष देखकर लोगोँमेँ प्रकट न करना अथवा चुगली या निन्दा न करना ,

(16) {दया भूतेष्व} बिना स्वार्थ दु:ख निवारण - सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया,

(17) {अलोलुप्त्वं} आसक्तिका अभाव - इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना,

(18) {मार्दवं} कोमलता - अन्त:करण, वाणी और व्यवहार मेँ जो कठोरताका सर्वथा अभाव होकर उनका अतिशय कोमल हो जाना,

(19) {ह्रीर} शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा - शास्त्र से विरुद्ध आचरण न करने का निश्चय होने के कारण उनके विरुद्ध आचरण जो सक्ङोच होता हैँ, उसे ही 'ह्री' लज्जा कहते हैँ,

(20) {अचापलम्} व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव - हाथ - पैर, वाणी और मनकी व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव,

(21) {तेज:} तेज - श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम 'तेज' है कि जिसके प्रभाव से उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं,

(22) {क्षमा} क्षमा - अपना अपराध करनेवालेको भी किसी प्रकार भी दण्ड देने-दिलानेका भाव न रखना,

(23) {धृति:} धैर्य - भारी से भारी आपत्ति, भय या दु:ख उपस्थित होनेपर भी विचलित न होना,

(24) {शौचम्} बाहर की शुद्धि - सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती हैँ,

(25) {अद्रोहम्} अद्रोह - एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना,

(26) {नातिमानिता} अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव - अपनेको श्रेष्ठ तथा बडा या पुज्य न समझना,

ये सब तो हे दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं तथा इनको "कर्तव्यकर्म" भी कहते हैँ।

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"धर्म" क्या हैँ ? और"अधर्म" क्या हैँ ? तथा"ज्ञान" और "अज्ञान" किसे कहते हैँ ? जानिये......यहां किल्क करके...









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