क्या "गिता" के अनुसार कीसी भी 'जानवर', 'जिव', या 'पेडोपौधे' को मारना उचित है ।

भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमदभागवत गिताजी मेँ कहे हुये वचनो पर गौर करे तो अहिँसा ही परमधर्म हैँ।

गिता के 16 अध्याय के 2 श्लोक मेँ अहिँसा की व्याख्या कुछ इस तरह की गयी हैँ।

किसी भी प्राणीको कभी कहीँ भी लोभ, मोह या क्रोधपूर्वक अधिकमात्रामेँ, मध्यमात्रामेँ या थोडा - सा भी किसी प्रकारका कष्ट स्वयं देना, दुसरेसे दिलवाना या कोई किसीको कष्ट देता हो तो उसका अनुमोदन करना हर हालत मेँ "हिँसा" हैँ।

इस प्रकार की हिँसाका किसी भी निमित्तसे मन, वाणी, शरीरद्वारा न करना - अर्थात् मनसे किसा का बुरा न चाहना; वाणीसे किसीको न तो गाली देना, न कठोर वचन कहना और न किसी प्रकारके हानिकारक वचन ही कहना तथा शरीरसे न किसीको मारना, न कष्ट पहुँचाना आदी - ये सभी "अहिंसा" के भेद हैँ।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌॥

(गिता 16-2)

मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, सत्यता, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात्‌ चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ॥16-2॥

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्‌ । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥

(गिता 13-7)

श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव,किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह ॥13-7॥

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥ यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥

(गिता 12-13,14,15)

जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है ॥12-13,14॥ जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है ॥12-15॥

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥

(गिता 17-14)

देव, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का सेवा, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ॥17-14॥

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्‌ । मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥

(गिता 18-25)

जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ॥18-25॥

आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः । विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥

(गिता 18-28)

जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है वह तामस कहा जाता है ॥18-28॥

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता। सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥

(गिता 18-32)

हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी 'यह धर्म है' ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है ॥18-32॥

तथा भगवान के इन वचनो को न सुन कर हिँसा करने वालो को भगवान कौन सी गती प्रदान करते हैँ ये जानने के लिये तथा आगे बढने के लिये....यहां किल्क करे...



कुछ प्रश्न और उनके समाधान